बसंत 
कोयल से कहा मैंने सखि ! 
मेरी बोली को दे -दे थोड़ी सी मिठास 
वह झट से मान गई 
फूलों ने मुझे दे दी खुश -खुश खुशबू की बहार 
कलियों ने फिर भर -भर अँजुरी 
मुझ पर दी उड़ेल अपनी 
हँस कर अपनी उन्मुक्त हंसी 
भौरों से सीख लिए मैंने सब प्यार के गीत 
भीनी -भीनी गुन -गुन 
पायल में हवाओं में 
भर दी रुन -झुन ,रुन झुन 
और झरनों का संगीत 
इठलाना बक्श दिया 
तितली ने स्वयं मुझ को\ 
और झील के पानी की उद्दाम तरंगों ने 
दी अपनी चंचलता 
रक्ताभ पलाशों ने रंग डाले कपोल मेरे 
मेहंदी ने हथेली पर रख दी अपनी सुर्खी 
इक वृद्ध अशोक ने फिर वरदान दिया मुझ को 
जीने का शोक रहित 
और मुझ में उतर आया मानों कि समूचा वसंत 
जो रोप गया खुशियाँ 
मेरे अंतस में अनंत 
 
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