Thursday 28 July 2016

निबन्ध
कुछ तो लोग कहेंगे ...!


                                                  ‘
अच्छा नहीं लगेगा ...! लोग क्या कहेंगे ...?’
दिन भर में जाने कितनी बार हम इस वाक्य को परस्पर व्यवहार में लाते हैं। भले ही इस वज्ह से हमें कितनी ही पीड़ा उठानी पड़ती हो। ज़रा सोचिए, आत्म निरीक्षण कीजिए, क्या हम ऐसा कर के उचित कर रहे हैं ? या फिर ख़ुद के प्रति अन्याय कर हरे हैं। आख़िर, बात-बात में हमें दूसरों की ही परवा क्यों होती है ? किस से, किस लिए तथा क्यूँ डरते हैं हम ? जब हम किसी का बुरा नहीं कर रहे हैं। अपना कार्य अपनी सुविधा से कर रहे हैं। अपनी पसन्द से जी रहे हैं। फिर पराश्रित क्यों ? पूछिए तो अपने आप से! आप स्वयं दंग रह जाऐंगे कि अरे हम यह क्या कर रहे हैं ? जिन को ले कर हम इतना सतर्क रह रहे हैं, क्या वो हमारी मनःस्थिति से अवगत भी हैं ? बिल्कुल नहीं .... उन्हें हमारे बारे में सोचने की फ़ुर्सत तक नहीं होती। तो उन्हेें कुछ फ़र्क़ पड़ता है, ही हमें वो कुछ दे देते हैं। यानी उन्हें हम से कोई लेना-देना नहीं होता है, सिवाए पीछे से हमारी चुग़ली करने के, बुराइयाँ करने के। फिर उन की इतनी चिन्ता क्यों ? कहीं यह हमारा हीनताबोध तो नहीं ?
लेकिन हम हैं कि मानते ही नहीं। कुछ भी वस्तु ख़रीदते समय यद्यपि हमें अमुक दूकान पर वह पसन्द नहीं आती, फिर भी घूम-फिर कर उसी से ख़रीद लेते हैं। यही सोच कर किअच्छा नहीं लगेगा जब कि अगली बार हम वहाँ जाऐंगे तो ज़रूरी नहीं कि दूकानदार हमें पहचाने भी। उसे अपने सामान बेचने से मतलब होता है। अलबत्ता, नहीं ख़रीदने पर कुछ विक्रेता कुछ कुछ ऊलज़लूल बड़बड़ातेे और हैं। किसी ठेले पर कुछ भी लेने के लिए यदि हम ठहर जाते हैं तो वहाँ से कुछ लेने का मन नहीं होने पर भी आगे नहीं बढ़ पाते। फिर घर कर ख़ुद पर ही कुढ़ते हैं। यदि कोई क्रेता ग़रीब नज़र जाए तो उस से कुछ लेना हीे लेना है कि चलो बेचारे की कुछ मदद हो जाएगी। ऐसी सरलता, मासूमीयत, भावुकता किस काम की ? हाँ, सभी लोग ऐसे नहीं होते हैं, फिर भी बहुत होते हैं। हमारे जैसे अति सम्वेदनशील भी कम नहीं होते।
यह भी बहुत बड़ा यथार्थ है कि कोई व्यक्ति सब को एक साथ ख़ुश नहीं रख सकता। स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम से भी सारी की सारी प्रजा प्रसन्न्ा नहीं थी। फिर सब को प्रसन्न्ा रखने का प्रयास निरर्थक है। जब हम अपनी जगह सही हैं तो जिस को जो कहना है कहे, जो सोचना हो सोचे, हमें परवा नहीं करनी चाहिए। शाइर पुरुषोत्तमयक़ीनने ख़ूब कहा है:-
जो जी मेें आए सोच ले तू मेरे वास्ते
आख़िर किसी के सोच पे मेरा है ज़ोर क्या
और यह भी कि:-
क्यूँ हो इस बात की परवा मुझ को
क्या कहेगी तेरी दुनिया मुझ को
यह तो दुनिया का दस्तूर है, कुछ कुछ कहेगी ही। चाहे आप दैवीय गुणों से सुसम्पन्न्ा एक आदर्श व्यक्ति ही क्यों हों। इतिहास बताता है कि ऐसे महान पुरुषों को तो सन्सार द्वारा हमेशा प्रताड़ित ही किया गया है।एक गधे और बाप-बेटे की कहानीसभी जानते हैं। हर स्थिति में लोगों ने उन्हें ग़लत ही ठहराया। ऐसे में आख़िर आदमी करे भी तो क्या करे ? कोई रास्ता नहीं सिवाए इस के कि लोगों की फ़िक्र करना छोड़ दिया जाए। उन्हें तो हर बात में तक्लीफ़ है, आप अच्छे हैं, तो क्यों हैं ? बुरे हैं, तो क्यों हैं ? अपना एक शैर यहाँ प्रासंगिक लग रहा है:-
फ़िक्र औरों की है लाज़िम
पहले अपना ध्यान रखना
ृलेकिन होता इस का उल्टा है। दूसरों के मुआफ़िक़ चलते हैं हम। उन की नज़र से देखते हैं ख़ुद को। जैसा वो लोग हमें देखना चाहते हैं, वैसा ही बनने की कोशिश रहती है हमारी। किसी ने कह दिया कि आज हम ख़ूबसूरत लग रहे हैं तो बाग़-बाग़ हो जाते हैं, फूल कर क़ुप्पा हो जाते हैं। किसी ने कह दिया कि यह परिधान आप पर नहीं फब रहा है तो हम उन वस्त्रों को अगले ही दिन उठा कर ताक़ पर रख देते हैं, जिन्हें हम बड़े शौक़ से ख़रीद कर लाए थे। इसी बात पर एक कहावत भी रच डाली किखाओ अपनी पसन्द का, पहनो दूसरों की पसन्द का हमें तो इस में पराधीनता की बू रही है। क्या हमारी पसन्द के कोई मआनी नहीं ? क्या कुछ भी ख़रीदने के समय हम दूसरों को साथ ले कर जाऐंगे। फिर सैकड़ों लोग होते हैं हमारे इर्द-गिर्द, किस-किस की पसन्द का ख़याल रखेंगे ? यह बात तो असम्भव-सी ही है।
यानी हम अपनी पसन्द, भावना, सिद्धान्त, इच्छा आदि को दबा कर समझौता करें, मानसिक ग़ुलाम बनें। जैसा दूसरे लोग चाहते हैं, वैसा करें। यह तो महज दिखावा हुआ। सिर्फ़ इस लिए कि हम औरों की नज़र में अच्छे बने रहें, अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर पराधीन रहें।
यद्यपि महा कवि तुलसी दास हमें सैकड़ों वर्ष पहले से सावधान करते रहे हैं कि “... पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं यहाँ तक कि चल-चित्रअमर प्रेमका यह गीत गायक किशोर कुमार की आवाज़ में बार-बार हमें सावचेत करता रहता है:-
कुछ तो लोग कहेंगे... लोगों का काम है कहना ...
छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत जाए रैना ...”
मगर हम हैं कि अपने आस-पास की और हमारी पवित्र विरासत की अच्छी-अच्छी बातों से कुछ सबक़ लेना तो दूर की बात है, उन के मर्म को भी समझने का प्रयास नहीं करते हैं।
शादी-ब्याह को ही लीजिए। हर आदमी अपने बच्चों का विवाह पूरी धूमधाम से करता है। चाहे फिर क़र्ज़ ही क्यों लेना पड़े ? क्यों कि शादी का मुआमला है, कहीं जाति-बिरादरी में नाक नीची नहीं हो जाए, कोई अँगुली नहीं उठा पाए। यहाँ तक भी कोई बात नहीं। लेकिन हद तो ये है कि यह मालूम पड़ जाने पर भी कि अपनी बेटी को ससुराल में दहेज़ की बाबत बेहद प्रताड़ित किया जा रहा है, उसे फिर भी अपने घर नहीं आने देते। उस के बार-बार फ़र्याद करने पर भी माँ-बाप यही दुहाई देते हैं कि अब वही घर तेरा ठिकाना है। बाप के घर से तो तेरी डोली उठ गई अब पति के घर से ही तेरी अर्थी उठनी चाहिए। क्यों कि लोगों के कुछ कह देने का डर, बातें बनाने का डर, उन्हें ऐसा करने को उकसाता है। वो यह ताना नहीं सुनना चाहते कि देखो ब्याहता बेटी को घर में बिठा रखा है, ऐसे में चाहे बेटी की जान ही क्यों चली जाए।
समाज द्वारा जो अवधारणाऐं, वर्जनाऐं, माप-दण्ड, अन्ध विश्वास, सिद्धान्त, आड़म्बर किसी ज़माने में निर्धारित कर दिए गए थे, उन्हें आँखें बन्द कर के ढोते रहना व्यक्ति को मंज़ूर है। वर्तमान में उन की कोई प्रासंगिकता है भी कि नहीं, यह सोचने की तक्लीफ़ नहीं करता। नीति-शास्त्रों, पुराणों, ग्रन्थों में जो भी लिख दिया गया है, वह पत्थर की लकीर की तरह अमिट मान लिया गया है। अरे ...! समयानुसार तो पत्थर भी घिस जाते हैं। उन पर पड़ी हुई लकीरें भी मिट जाती हैं। लेकिन व्यक्ति के दुराग्रह अमिट हैं। शादी ही क्या हर कार्य में, समारोहों-त्यौहारों में, यानी हर क्षेत्र में इसी बात का ख़ास तौर पर ख़याल रखा जाता है कि कोई कुछ कह नहीं दे। फिर चाहे कितनी ही परेशानी क्यों उठानी पड़े। कम से कम विवेक से तो काम लिया जाए कि कोई भी धारणा हर युग में प्र्रासंगिक नहीं हो सकती है। फिर लकीरें पीटने का क्या औचित्य ? पुरुषोत्तमयक़ीनका एक और शैर यक़ीनन इसी स्थिति का बयान है:-
अब क्यूँ लकीर पीटते हैं बावले-से हम
वो तो लकीर खींच के जाने किधर गया
लेकिन नहीं, हमें तोदूसरों की परवाकी अधिक परवा है। हर एक मौक़े पर दूसरों की सन्तुष्टि का ध्यान रखते हैं, जैसे कि आत्म-तुष्टि का कोई महत्व ही नहीं है। हर काम मात्र दूसरों को दिखाने के लिए ही किया करते हैं, अपने सुख या ख़ुशी के लिए नहीं। यह उचित नहीं हैं। होना यह चाहिए कि हमारा मन क्या कह रहा है ? क्या चाहता है ? उस पर ध्यान दें। अपनी सुविधाओं, आकांक्षाओं का भी ख़याल करें। तभी सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है। अच्छा तो यह होगा कि हम अपने विश्वासों, सिद्धान्तों, नियमों, धारणाओं को अपनाते हुए, बिना किसी समझौते के अपना रास्ता ख़ुद बनाऐं, इस ˜ुत जीवन का सम्पूर्ण आनन्द उठाऐं। दुनिया ऐसे व्यक्तित्वों को ही झुक कर सलाम करती है। किसी शाइर ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है कि:-
दुनिया में सब से है बड़ा ये रोग
मेरे बारे में क्या कहेंगे लोग
स्वयं को पहचानना और स्वयं की महत्ता को स्वीकार कर के ही सच्चा और अच्छा जीवन जिया जा सकता है। शाइरजिगरमुरादाबादी भी फ़र्माते हैं कि:-
हम को मिटा सके वो ज़माने में दम नहीं
हम से है ये ज़माना, ज़माने से हम नहीं



(
कृष्णा कुमारी)