Thursday 28 July 2016

                 ‘शिखरों के हक़दार कृति : गागर में सागर

                       ‘शिखरों के हक़दार पढ़ने का  सुअवसर  मिला , एक अरसे बाद दोहा विधा की इतनी खूबसूरत कृति पढ़ी ,वाकई ये दोहे शिखरों के हक़दार  हैं | एक - एक दोहा ‘गागर में सागर’ | यह पुस्तक बरबस ही रहीम , बिहारी की याद दिला रही है |
       श्री रामनारायण जी ‘हलधर’ के कई –कई दोहे लोक की जुबान पर चढ़ चुके हैं , जो एक कृतिकार की लोकप्रियता और साधना को चिन्हित करते हैं |इसी के साथ - साथ विषयगत वैविध्य देखते ही बनता है | नूतनता और पारम्परिकता का अभूतपूर्व सम्मिश्रण यहाँ देखा जा सकता है | इस पुस्तक की सब से बड़ी विशेषता है , हलधर जी की मौलिक सोच, अंदाज़े – बयां , प्रतीकों की सुषमा , गीतात्मकता ... मिठास , लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति ...सरलता , माधुर्य , सौन्दर्य ....आदि आदि |
             हलधर जी ने जहाँ मौसम ,श्रृंगार , नारी मन , दाम्पत्य , प्रकृति - चित्रण , स्मृतियाँ ,रूप लावण्य को बहुत ही सूक्षमता के साथ  अभिव्यक्त किया है |वहीँ आम आदमी की पीड़ा , संत्रास , अभाव, अश्रु , ग्रामीण जीवन , टूटते  , रिश्तों की टीस और मानवीय संवेदानाओं को बखूबी  छूकर  एक नया मुहावरा प्रस्तुत किया है |वर्तमान परिवेश , मानवीय संबंधों की धड़कन इन दोहों में जीवंत हो उठी है | रामानारायण जी गहन चिंतन – मनन के सागर में डूबकर एक –एक मोती चुनकर लाये हैं |हर दोहा बेजोड़ है |इन के एक –एक दोहे पर बड़े –बड़े निबन्ध  लिखे जा सकते हैं और कृति पर शोधकार्य हो सकते हैं |
    अलंकर , बिम्ब ,गीति तत्व , शब्द सौन्दर्य ,शब्द शक्ति , व्यंजना , ध्वनि , अर्थात कला पक्ष को सुघड़ता और सौन्दर्य कृति में चार चाँद लगा रहे हैं |  बहुत ही कशमकश में हूँ कि किस दोहे को संदर्भित करूँ किसे नहीं |.....इतने अच्छे दोहे कोई कैसे लिख सकता है भला |....ये ही सोचकर अचम्भित हूँ  | इतना  मौलिक चिंतन – प्रस्तुतीकरण ,  बात कहने का नायाब सलीका  रामनारायण जी का ही हो सकता है जो काबिले – तारीफ है |. बतौर बानगी देखिये ...
‘ तुम कहते हो प्रेम की , यादें बड़ी ख़राब
क्यों रक्खे हैं आज तक , सूखे हुए गुलाब
अहसानों  का सिलसिला इतना ना बढ़ जाये
तेरी नीयत पर मुझे , शक होने लग जाये
कहाँ छुपाऊँ आप को , कहाँ जताऊँ प्यार
इतना छोटा शहर है , इतने रिश्तेदार
मौसम की शैतानियाँ , छू न सके दहलीज
            हर पौधे को बांधता , रहता हूँ ताबीज
लिखूं स्वयं के नाम के , साथ आप का नाम
लगता है पापा खड़े , मेरी उंगली थाम
और दिशाएं प्रीत की , मनवा बैठा भूल
तुम सूरज तो हम हुए , सूर्यमुखी के फूल
        हर दोहा अपने आप में नाविक का तीर है | हलधर जी के लोक  भी बहुत प्रचलित हैं ,ख्याति  अर्जित कर रहे हैं  | बड़े –बड़े विद्वानों ने इन दोहों की भूरि - भूरि सराहना की हैं |श्रोता इन को सुनकर मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं |पाठक  निहाल हो जाते हैं |सच कहूँ तो इन के दोहों में चमत्कारिक असर है | हलधर जी को दोहों का शहजादा  कहा जा सकता है | यह अत्युक्ति नहीं अपितु यथार्थ  है | इन के उत्तरोत्तर उन्मेष के लिए अनंत शुभकामनाएं ..., साधुवाद | दोहों के गगन में ध्रुव की भाति दैदीप्यमान रहें .... इन्ही शुभाशंषाओं के साथ


....                                        कृष्णा कुमारी

  

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