निबंध
बातें हैं बातों का क्या ………
कृष्णा कुमारी
आज आप से बातें करने का बड़ा मन हो राहा है. वो भी खूब सारी बातें. ढे.र सारी बातें। लेकिन कहां से शुरू करूँ. कैसे करूँ …अरे यह भी कोई बात हुई…बातें तो कहीं से. किसी भी बात से प्रारम्भ की जा सकती हैं । हाँ .एक बार शुरू हो जाये तो फिर बाते हैं कि रूकने का नाम तक नहीं लेती। जनाब. यह तो बातें हैं. और बातों का क्या। लेकिन ऐसा भी नहीं है. अरे, मैं कहाँ अटक गई. चलिये बातें शुरू कर ही देते हैं। इससे पहले कि आपको ये गीत याद आ जाए… “कसमें. वादे. प्यार. वफा…सब बातें हें बातों का क्या”।
हाँ. तो कितनी ही बार. बात केवल और केवल बात की ही होती है। भले यूँ कोई बात नहीं होती। प्रतिष्ठा
का सवाल हो या कोई और। जहाँ बात आर्नबार्नशान की हो तो. वहाँ फिर “प्राण जाए पर वचन न जाए……।”. बात की आबरू बचाने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता. मेरा ही एक शैर :
“बात की आबरू बचाई है
हमने तोड़ी नहीं. बनाई है”
कभी कभी बातों ही बातों में बात बन जाती है तो कभी बात बिगड भी जाती है।क्योंकि एक बार धनुष से निकला तीर वापस आ भी सकता है. लेकिन बात निकल जाने पर वापस कदापि नहीं लौटती। इसीलिए बी।एम। सुमन को कहना पड़ा………
“कोई भी बात ऐ हमदम. हमसफर सोचकर करना
ज़रा सी बात पर बरसों का रिश्ता टूट जाता है”।
यूँ बातें केवल बातें ही नहीं होती. ये भी कर्ईकई प्रकार की होती हैं. जैसेः प्यारी बातें. मीर्ठीमीठी बातें. कड़वी बातें. टेडी बातें. खरी बातें. झूठी बातें. सीधी साधी बातें. तिरछी बातें. छोटी बातें. बड़ी बातें आदि आदि।लेकिन बड़ी बात तो ये है कि………
“यह तो कोई बड़ी बात नहीं” या “अरे इस में कौन सी बडीं बात है”। वास्तव में कोई बड़ी बात होती ही नहीं है. छोटी छोटी बातों का समग्र रूप है. तथा कथित बड़ी बात”।
(डेस्क़ फ्रेण्डस फेल्पलाईन. कोटा)
और इसी बात पर किसी ने क्या खूब कहा है ……
“बात चाँदी है. बात सोना है
बात हीरा है बात मोती है
बात हर बात को नहीं कहते
बात मुश्किल से बात होती है”।
बात को लेकर सबसे स्मरण रखने वाली बात यह है कि हर बात कहने का एक वक्त होता है. वक्त की नज़ाकत को देखते हुये बात रख देना चाहिये। वरना कहीं ऐसा न हो कि “वक्त निकल जाए और बात रह जाए”। अतः इस बात का बहुर्तबहुत ध्यान रखना चाहिये। सबसे बड़ी बात यही है. ताकि बाद में पछताना नहीं पडे.।
बातों को लेकर कर्ईकई बातें भी प्रचलित हैं. मुहावरे भी। कहते हैं बात निकलेगी तों दूर तक जायेगी। इसलिये कुछ लोग तो बातों से ही चांर्दतारे तोड़ लाते हैं . हकीकत में भले ही कुछ करर्ते धरते नहीं बने…… भला यह भी कोई बात है। इसी प्रकार कुछ लोग बात के धनी होते हैं. तो कुछ बातों के शहंशाह. कुछ केवल बातें ही करते हैं…।।
“काम वाम करते नहीं, है बातों के शाह.
नाव देश की क्या तिरे. , ले डूबे मल्लाह”.... कृष्णा कुमारी
तो कुछ बात पर अड़ ही जाते हैं. कुछ इस प्रकार “बात पर अपनी अडे. हैं. तोड़ने को दिल खड़े है”। क्योंकि कहीं भी अड़ जाने पर कुछ हानि होती ही हैं।
बातों की बात पर याद आया है कि हर व्यक्ति का अन्दार्ज़ेबया जुदा जुदा होता है। किसी के बात करने पर शहद की तरह रस टपकता है तो किसी के बतियाने पर फूल झड़ते हैं तो किसी के बोलते ही चाँद खिल उठता है। अपना अपना सलीका है भाई ……क्या कीजै। हाँ. ऐसे व्यक्तियों से बात करने का लोभ भला कौन सँवरण कर सकता है।
देखिऐ इसी संदर्भ में किसी ने क्या खूब कहा है....
“सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं.” (अहमद फराज)
हाँ. बातों का सिलसिला कुछ इस प्रकार होता है……
“ज्यों केले के पात, पात में पात, पात में पात.
ज्यों गधे की लात. लात में लात. लात में लात.
ज्यों चतुरून की बात. बात में बात. बात में बात”
और बात द्रोपदी के चीर की तरह लम्बी होती जाती हैं. होती जाती हैं. होती जाती हैं। हाँ. तो मेरी बात भी द्रोपदी के चीर की तरह लंबी हो जाए इस के पहले छोटा सा ब्रेक ले लेते हैं ताकि आप इस बीच अपनों से कुछ बात कर सकें।
आफटर द ब्रेक़ ब्रेक तो समाप्त हो जाता है. लेकिन कर्भीकभी बातों के बीच ऐसा ब्रेक सा लग जाता है कि लाख चाहते हुए. कोशिश करते हुए भी बात मुँह से निकलने का नाम ही नहीं लेती। होठों पर आकर रूक जाती है । कुछ कह नहीं पाते और जीवन भर पछताते रहते हैं। यही सोचकर कि काश. उस समय वो बात कह दी होती। लेकिन मन की बात कह देना इतना आसान भी तो नही होता…… कैसे कहूँ. कैसे कहूँ. इसी कशमकश में समय की गाड़ी निकल जाती है।
कितनी ही बार सामूहिक रूप से खूब बातें चलती रहती हैं लेकिन अचानक सब चुप हो जाते हैं। कुछ देर के लिए. महफिल में सन्नाटा छा जाता है. सब एक दूसरे का मुँह देखने लग जाते हैं। किसी से कुछ कहते नहीं बनता. ब्रेक हो जाता है तक कोई एक़ कैसे न कैसे. कोई भी छेडकर खामोशी को चुप करता है और बात सम्भाल लेता है. तो कभी कभी हर कोई अपर्नीअपनी बोलता जाता है. सुनता कोई नही. अमूमन ऐसा भी होता है। यानी कि जितना आसान बातें करना है उतना ही मुश्किल भी। कभी कभी तो बात करने के लिए कोई विषय ही नहीं मिलता तो ऐसे में मौसम से बात प्रारम्भ कर ली जाती हैं. क्योंकि यह सबसे अहम और प्रचलित विषय जो है। यहाँ पर रचनाकार बृजभूषण चतुर्वेदी जी के कुछ शैर याद आ रहे र्है :
“भूखे से भगवान की बातें
रहने दे ये ज्ञान की बातें
हाथो में पहले रोटी रख
फिर करना ईमान की बातें।
पूछो जाकर किसी दीये से
आँधी औ’ तूफान की बातें”।
वाकई भूखे भजन न होय गुपाला।
जरूरी नहीं कि बातें परिचितों से ही होती हों. अपरिचितों में भी खूब जमकर बातें हो जाया करती हैं. बस एक बार सिलसिला शुरू होने की देर होती है बस। ट्रेन आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ट्रेन में एकदम अजनबियों के बीच या तो पूरे रास्ते बात हाती ही नहीं. क्यों कि पहल कैसे हो. यह बड़ी बाधा होती है और यदि कोई एक दुस्साहस कर ले तो बातों ही बातों में बातों का कारवाँ ऐसा चलता है कि रूकने का नाम तक नहीं लेता चाहे मंजिल पर आकर रेल खुद ठहर जाये। हाँ. विषयगत वैविध्य यहाँ कमाल का होता है।
एक और बात कि बातें करने के लिए महिलाओं को खूब बदनाम किया हुआ है। उन्हें बातूनी होने के खिताब से नवाज़ा जा चुका है। जब कि पुरूष वर्ग इस प्रतिस्पद्र्धा में उन से सात कदम आगे हैं। चलिए. छोड़िये. कोई बात नहीं. यह कोई बडी. राष्ट्रीय समस्या नहीं है। न ही विवाद का मुददा ही। लेकिन पुरूषों में एक वर्ग ऐसा भी है जो बोलतें नहीं हैं. परन्तु भीतर ही भीतर ट्रेन की सीटी की तरह चीखते रहते हैं. कुछ इस प्रकार र्से :
“जो लोग बोलते नहीं/ भीतर ही भीतर /
ट्रेन की सीटी की तरह /दहाडते हैं…” कृष्णा
कुमारी
ऐसे लोग मन ही मन में धुटते रहते हैं. और यही धुटन कभी आक्रोश बनकर फूट पड़ती है. और महाविस्फोट का रूप ले लेती है। यह स्थिति बड़ी भयानक होती है ।और महिलाएँ हैं .कि कोई सुने न सुने. बस अपने मन की तमाम बातों को उडे.लती जाती हैं. बोलती जाती हैं. बड़बड़ाती रहती हैं. खुद से ही बातें करती रहती हैं. इसीलिए हमेशा बरस चुके मेधों की भाँति हल्र्कीफुल्की रहती हैं .। इस में बुरा भी क्या है भला। कहां भी गया है कि महिलाओं के पेट में बात नहीं टिकती। इन्ही संदर्भों
से मेल खाती कुछ पंक्तियॉं अर्ज हें ………
“होती है महिलायें / बहुत बातूनी
/बिलकुल नदी की तरह / बातों ही बातों में /
एक ही बात से गढ लेना/ महाकाव्य /इनके बायें हाथ का खेल है……” (कृष्णा कुमारी)
कुल मिलाकर. हर जगह सन्तुलन जरूरी होता है। हाँ. मिलकर बैठकर बात करने से समस्या का हल जरूर निकल जाता है और हाँ. बातो में संतुलन नहीं रहने पर या तो बातें बहुत होती हैं या फिर मौन पसर जाता है। अधिक बातें होने पर वक्त जाया होता है जो बहुत ग़लत है। आजकल तो फोन पर ही लोग धण्टो बतियाते रहते हैं क्योंकि फोन कंपनियो में सस्ती सुविधायें मुहैया करवा रखी है। इस से दो कदम आगे. चेटिंग का तो भगवान ही मालिक है……… मुझे कुछ नहीं कहना। हाँ. मैं आपको बातें करने से मना नहीं कर रहीं हूँ क्योंकि कब. किससे. कितनी बातें करनी है. आप खुद समझते हैं। चलिये. अपनी बात को यहीं विराम देती हूँ. वरना आलेख की जहह पूरा एक ग्रंथ तैयार हो जायेगा। आप ने इतनी देर तक पूर्ण मनोयोग से मेरी बात को सुना. तहे दिल से शुक्रिया और चलते चलते मुलहिजा फरमार्ये :
“छोड़ो ये किरदार की बातें।
और है कुछ संसार की बातें।
कश्ती है न खिवैया कोई
फिर भी हैं. मझधार की बातें।
‘कृष्णा’ कब मंजूर जहाँ को
क्यूँ करती हो प्यार की बातें।”
कृष्णा कुमारी
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