Sunday 21 September 2014


 

निबंध

 बदलाव                                  कृष्णा कुमारी

परिवर्तन सृष्टि का अटल नियम है। हर पल, हर चीज़ में बदलती रहती है। यहाँ तक कि मानव शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता जाता है, उसे मगर वह महसूस नहीं कर पाता। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सतत् आमूल परिवर्तन होता रहता है, यही शाश्वत सत्य है। परिवर्तन की इसी प्रक्रिया के वशीभूत मानव स्वभाव भी बदलाव चाहता है। क्योंकि इससे भारत की विरासत खण्डित होने का भय भी बना हुआ है। वो भी इतना कि सुबह की सब्जी तक भी वह शाम को नहीं खाना चाहता। उसे एकरसता कतई नहीं सुहाती। घर में भी चीजों को इधर-उधर बदलना इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है।

वाकई परिवर्तन सौंदर्य की केन्द्र बिन्दू है। सौंदर्य ही शिव और सत्य है। लेकिन इन दिनों भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, धारणाओं, जीवन मूल्यों के निरन्तर होते क्षरण पर हो हल्ला बोला जा रहा है। बुद्धिजीवी इसी बात को लेकर चिंतित है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत समाप्त होती जा रही है। साथ ही विदेशी आयातीत अपसंस्कृति का आक्रमण भी चिन्ता का विषय बना हुआ है क्योंकि इससे भारत की विरासत खण्डित होने का भय भी बना हुआ है। जो चीज समाप्त होने लगती है या हम से दूर होती जाती है उससे और अधिक लगाव एवं उसे सहेज कर रखने की कमना बरबस बलवती होने लगती है।

लेकिन यहाँ हम यह भूल रहे हैं कि परिवर्तन विकास का मूलमंत्र है। यदि परिवर्तन नही होते तो अभी तक हम प्रस्तर युग में जी रहे होते। आज जितनी भी आशातीत, कल्पनातीत प्रगति मानव ने की है यहाँ तक कि चाँद पर कदम रखने की ही बात करें तो यह अनवरत होते परिवर्तन से ही सम्भव हुआ है। पैदल चलने से लेकर राकेट तक की यात्रा बदलते संदर्भों का ही सुपरिणाम है। ऐसा नहीं होता तो एकरसता का अंधकार व्यक्ति को घेर लेता जो जड़ता का प्रतीक है। यदि चूल्हे से ही चिपके रहतें तो आज गैस का चूल्हा, माइक्रो ओवन नहीं होता, ग्रामाफोन से सी.डी. तक नहीं पहुँचते। हाँ, कुछ खत्म होता है तो कुछ नया ईजाद भी होता है। रात आती है तो सुबह भी खिलती है। यदि बहते हुये जल को रोक दिया जाऐ तो वह सड़ने लगता है ।

इसी परिप्रेक्षय में 7.4.10 की राज. पत्रिका में "समाज" कॉलम में सुधीर पचेरी ने लिखा है "बहुत कुछ बदल गया है। बहुत कुछ उपयोगी अपना लिया गया है। बहुत कुछ जोड़ दिया गया है। समाजों के उपयोगिता के हिसाब से शुद्धता का भी मिश्रण किया जाता है जबर्दस्ती न कुछ स्वीकार किया जाता है न ही अस्वीकार किया जाता है। यदि हम जरा सी देर कल्पना ही करें कि कुछ समय के लिए ही सही यह संसार एकदम ठहर जाए, तो कैसा लगेगा, बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा। "चलती का नाम गाड़ी है" यह उक्ति इस विषय में पूरी तरह प्रासंगिक ठहरती है। जय शंकर प्रसाद की यह पंक्तियाँ इसी बात की पुष्टि कर रही हैः-

"पुरातनता का यह निर्मोक

सहन न करती प्रकृति एक"

 

संसार में जब तक परिवर्तन का क्रम जारी रहेगा, तभी तक वह संसार कायम रह पायेगा। सतत् विकास प्रकृति का सिद्धान्त है, इसे कैसे भी नकारा नहीं जा सकता। आज हम घर बैठे पूरी दुनिया की गतिविधियों को देख लेते हैं, हज़ारों मील दूर बैठे अपनों से बातें कर लेते हैं, उन्हें देख भी लेते हैं। आज मनुष्य की आयु वृद्धि की दर बढ़ी है, यह सब तरक्की का ही परिणाम है। कुछ पाने के लिये, कुछ खोना भी पड़ता है। इस स्वाभाविक सच को हमें स्वीकारना होगा। उदार दृष्टिकोण से चीजों को देखना परखना होगा। तभी हम निष्पक्षता से चीजों के प्रति न्याय कर पायेंगे, दुराग्रहों से मुक्त हो पायेंगे।

पुरानी चीजों के समाप्त होने की चिंता, संस्कृतिक विरासत के खोने का डर भी कम होगा। जो कुछ हम बचा कर रख सकते हैं, उन्हें सहेज कर रख लिया जाए जैसे गीत-संगीत, जिन्हें सी.डी. में सहेजा जा सकता है। पुरानी चीजों को सहेजकर संग्रहीत किया जा सकता है। चक्की, चूल्हे तो अभी ग्रामीण अंचलों में खूब प्रचलित हैं। जिस दिन खत्म होंगी, बचा लिया जाए। बहुत सी चीजों को पुस्तकों में बचाया जा सकता है, संग्रहालयों में रख कर महफ़ूज रखा जा सकता है।

वैसे तो चीजों को बचाये रखने के कई आधुनिक तरीके ईजाद हो चुके हैं। फिर भी जिसे कैसे भी नहीं बचाया जा सकता है, वहाँ स्थिति को स्वीकारने के अलावा कोई उपाय नहीं रह जाता। केवल सेमीनारों, गोष्ठियों में बयान बाजी, भाषण बाजी करने से या अखबारों में लिखने से या मात्र हो-हल्ला मचाने से कुछ हासिल नहीं होगा। वाकई हमें संस्कृति से प्रेम है तो उसे बचाने के लिये व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, मेहनत करनी होगी, ईमानदारी से लड़ना होगा, विदेशी आक्रमण का मुँह तोड़ जवाब देना होगा। दुष्यन्त कुमार का एक शैर यहाँ याद आ रहा हैः-

"सिर्फ हंगामा करना मेरा मक़सद नहीं

मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी, चाहिए"

जबकि आजकल केवल हंगामा मचाकर यश कमाने की प्रतिस्पर्द्धा चल रही है। जिस अपसंस्कृति को लेकर चिंता जताई जाती है, उसे वही व्यक्ति दैनिक जीवन में अपनाते हुये देखे जा सकते हैं। विदेशी चीजों को अपनाकर गर्वित होते हैं, इतराते हैं। जन्म दिन पर मंदिर जाने के बजाए दान देने के बजाए केक ही काटा जाता है। यानी, आयातीत संस्कृति को बढ़ावा भी तो हम ही दे रहे हैं। फिर चिंता या शिकायत कैसी, कुछ अपवाद ज़रूर मिलेंगे। चूल्हे की रोटी की दुहाई देने वालों के घर में शान से गैस के चूल्हे पर खाना बनता है। फिर भी कुछ लोग है जिन्हें वाकई पुरानी चीजों से, मूल्यों से प्रेम है। वो व्यवहार में उन्हें अपनाते भी हैं।

देखिए, परिवर्तन को तो कोई भी माई का लाल नहीं रोक सकता। केवल जो वश में है, वह बचा लिया जाये और उदारता से भी काम लिया जाये। हमेशा चमकने वाली हर चीज़ सोना नहीं होती, या "ओल्ड इज गोल्ड" हो ही जरूरी भी नहीं, नया भी तो गोल्ड नहीं हो सकता। दोनों बातें अपनी जगह है। हर युग में अच्छाई बुराई समानान्तर चलती है, चलती रहेगी। वैज्ञानिक आविष्कारों ने हमें एक से एक सुविधा दी है। आज हम चंद दिनों में दुनिया की सैर करते हैं। देखना यह है कि इन सुविधाओं का उपयोग कैसे किया जा रहा है। दुरूपयोग होने से वही सुविधा संकट खड़ा कर देती है। इंटरनेट इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। बजाए, परिवर्तन को कोसने के, उसका दुरुपयोग रोका जाये। सदुपयोग को बढ़ावा दिया जाये।

यहां पर एक और बात ज़हन में आती है कि कही हम परिवर्तन से डरते तो नहीं । बनी बनाई लीक पर चलना, परम्पराओं से चिपके रहना हमारी मज़बूरी है या इन पर चलना आसान भी है। क्यों कि कुछ भी नया करने या स्वीकारने के लिये हौंसला, चाहिये। और यह साहस केवल तीन प्राणी ही करते है।

"लीक छोड़ तीनों चले

सायर, सिंह, सपूत"

इसी प्रसंग में कात्यायनी उप्रेती के विचार भी बहुत कुछ सार्थक है। 24.6.09 के नवभारत टाइम्स (मुम्बई) में लिखती है कि "इसी तरह हमारी जिन्दगी के रास्ते भी तय होते है। जीवन मे कई चीजें बदलाव चाहती है, लेकिन यह सोचकर कि यही चला आ रहा है, हम एक ही ठर्रे की जिन्दगी जीनें पर मज़बूर करती है। बदलाव के लिए चाहिए हिम्मत सोचने की और उस सोच पर अमल करन की। तमाम वैज्ञानिकों , कलाकारों, लेखकों की हिम्मत का ही नतीजा है कि हम रोज एक बेहतर दुनिया में जी रहे होते है। लेकिन दुनिया में एक बड़ा हिस्सा वह है, जो यह हिम्मत नहीं कर पाता है"

हिम्मत भी नहीं कर पाता और चीजों से मोह भंग भी नहीं कर पाता। मोह ऐसा भाव है जो हमें अपनी पुरानी चीजों से बरबस चिपके रहने को विवश करता है। और हम उनका गुणगान करते नहीं थकते लेकिन उनसे चिपके रहना उत्थान में बाधक होता है, यह याद रखना भी ज़रूरी है। समयानुसार चीजें बदलती है, बदलती रहेंगी, चाहे हम कुछ भी कर ले। अतः बहतर यही है कि चीजों को देखने का अपना नजरिया बदला जाए, उदारता से, निष्पक्षता से चिंतन किया जाऐ। उनकी उपयोगिता का आकलन खुले मन से किया जाए। सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकारना, नकारात्मक बदलाव के प्रति सतर्क रहते हुये समाज को, विशेषकर युवा पीढ़ी को इस से बचाने के वाकई प्रयास किये जायें।

कृष्णा कुमारी

 

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