....उतर
आया बसंत
कोयल से कहा मैंने सखि !
मेरी बोली को दे -दे थोड़ी सी मिठास
वह झट से मान गई ,
फूलों ने मुझे दी खुश -खुश खुशबू की बहार
कलियों ने चटख कर फिर
भर -भर अँजुरी – अंजुरी
मुझ पर दी उड़ेल अपनी
हँस कर उन्मुक्त हंसी ,
भौरों से सीख लिए मैंने सब प्यार के गीत ,
भीनी -भीनी गुन –गुन ,
पायल में हवाओं ने
भर दी रुन -झुन ,रुन - झुन
और झरनों का संगीत,
इठलाना बख्श दिया
तितली ने स्वयं मुझ को\,
और झील के पानी की उद्दाम तरंगों ने
दी अपनी चंचलता ,
रक्ताभ पलाशों ने रंग डाले कपोल मेरे
मेहंदी ने हथेली पर रख दी अपनी सुर्खी
इक वृद्ध अशोक ने फिर वरदान दिया मुझको
जीने का शोक रहित
और मुझ में उतर आया
मानों कि समूचा बसंत
जो रोप गया खुशियाँ
मेरे अंतस में अनंत
कृष्णा कुमारी
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